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बर्न, स्विटज़रलैंड में श्री सत्य नारायण गोयन्का द्वारा दिए गये प्रवचन पर आधारित ।

सभी सुख एवं शांति चाहते हैं, क्यों कि हमारे जीवन में सही सुख एवं शांति नहीं है । हम सभी समय समय पर द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं । और जब हम दुखी होते हैं तब यह दुख अपने तक ही सीमित नहीं रखते । हम औरों को भी दुखी बनाते हैं । जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है, और उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है । सचमुच, यह जीवन जीने का उचित तरीका नहीं है ।

हमें चाहिए कि हम भी शांतिपूर्वक जीवन जीएं और औरों के लिए भी शांति का ही निर्माण करें । आखिर हम सामाजिक प्राणी हैं, हमें समाज में रहना पडता हैं और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ पारस्पारिक संबंध रखना है । ऐसी स्थिति में हम शांतिपूर्वक जीवन कैसे जी सकते हैं? कैसे हम अपने भीतर सुख एवं शांति का जीवन जीएं, और कैसे हमारे आसपास भी शांति एवं सौमनस्यता का वातावरण बनाए, ताकि समाज के अन्य लोग भी सुख एवं शांति का जीवन जी सके?

हमारे दुख को दूर करने के लिए पहले हम यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं । गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है । हमारे मन में विकार भी हो और हम सुख एवं सौमनस्यता का अनुभव करें, यह संभव नहीं है ।

ये विकार क्यों आते है, कैसे आते है? फिर गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब कोई व्यक्ति हमारे मनचाहा व्यवहार नहीं करता उसके अथवा किसी अनचाही घटना के प्रतिक्रियास्वरूप आते हैं । अनचाही घटना घटती है और हम भीतर तनावग्रस्त हो जाते हैं । मनचाही के न होने पर, मनचाही के होने में कोई बाधा आ जाए तो हम तनावग्रस्त होते हैं । हम भीतर गांठे बांधने लगते है । जीवन भर अनचाही घटनाएं होती रहती हैं, मनाचाही कभी होती है, कभी नहीं होती है, और जीवन भर हम प्रतिक्रिया करते रहते हैं, गांठे बांधते रहते हैं । हमारा पूरा शरीर एवं मानस इतना विकारों से, इतना तनाव से भर जाता है कि हम दुखी हो जाते हैं ।

इस दुख से बचने का एक उपाय यह कि जीवन में कोई अनचाही होने ही न दें, सब कुछ मनचाहा ही हों । या तो हम ऐसी शक्ति जगाए, या और कोई हमारे मददकर्ता के पास ऐसी ताकत होनी चाहिए कि अनचाही होने न दें और सारी मनचाही पूरी हो । लेकिन यह असंभव है । विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सारी इच्छाएं पूरी होती है, जिसके जीवन में मनचाही ही मनचाही होती है, और अनचाही कभी भी नहीं होती । जीवन में अनचाही होती ही है । ऐसे में प्रश्न उठता है, कैसे हम विषम परिस्थितियों के पैदा होने पर अंधप्रतिक्रिया न दें? कैसे हम तनावग्रस्त न होकर अपने मन को शांत व संतुलित रख सकें?

भारत एवं भारत के बाहर भी कई ऐसे संत पुरुष हुए जिन्होंने इस समस्या के, मानवी जीवन के दुख की समस्या के, समाधान की खोज की । उन्होंने उपाय बताया- जब कोई अनचाही के होने पर मन में क्रोध, भय अथवा कोई अन्य विकार की प्रतिक्रिया आरंभ हो तो जितना जल्द हो सके उतना जल्द अपने मन को किसी और काम में लगा दो । उदाहरण के तौर पर, उठो, एक गिलास पानी लो और पानी पीना शुरू कर दो—आपका गुस्सा बढेगा नहीं, कम हो जायेगा । अथवा गिनती गिननी शुरू कर दो—एक, दो, तीन, चार । अथवा कोई शब्द या मंत्र या जप या जिसके प्रति तुम्हारे मन में श्रद्धा है ऐसे किसी देवता का या संत पुरुष का नाम जपना शुरू कर दो । मन किसी और काम में लग जाएगा और कुछ हद तक तुम विकारों से, क्रोध से मुक्त हो जाओगे ।

इससे मदद हुई । यह उपाय काम आया । आजभी काम आता है । ऐसे लगता है कि मन व्याकुलता से मुक्त हुआ । लेकिन यह उपाय केवल मानस के ऊपरी सतह पर ही काम करता है । वस्तुत: हमने विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबा दिया, जहां उनका प्रजनन एवं संवर्धन चलता रहा । मानस के ऊपर शांति एवं सौमनस्यता का एक लेप लग गया लेकिन मानस की गहराईयों में दबे हुए विकारों का सुप्त ज्वालामुखी वैसा ही रहा, जो समया पाकर फूट पडेगा ही ।

भीतर के सत्य की खोज करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने इसके आगे खोज की । अपने मन एवं शरीर के सच्चाई का भीतर अनुभव किया । उन्होंने देखा कि मन को और काम में लगाना यानी समस्या से दूर भागना है । पलायन सही उपाय नहीं है, समस्या का सामना करना चाहिए । मन में जब विकार जागेगा, तब उसे देखो, उसका सामना करो । जैसे ही आप विकार को देखना शुरू कर दोगे, वह क्षीण होता जाएगा और धीरे धीरे उसका क्षय हो जाएगा ।

यह अच्छा उपाय है । दमन एवं खुली छूट की दोनो अतियों को टालता है । विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबाने से उनका निर्मूलन नहीं होगा । और विकारों को अकुशल शारीरिक एवं वाचिक कर्मों द्वारा खुली छूट देना समस्याओं को और बढाना है । लेकिन अगर आप केवल देखते रहोगे, तो विकारों का क्षय हो जाएगा और आपको उससे छुटकारा मिलेगा ।

कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन । अपने विकारों का सामना करना आसान नहीं है । जब क्रोध जागता है, तब इस तरह सिर पर सवार हो जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता । क्रोध से अभिभूत होकर हम ऐसे शारीरिक एवं वाचिक काम कर जाते हैं जिससे हमारी भी हानि होती है, औरों की भी । जब क्रोध चला जाता है, तब हम रोते हैं और पछतावा करते हैं, इस या उस व्यक्ति से या भगवान से क्षमायाचना करते हैं— हमसे भूल हो गयी, हमें माफ कर दो । लेकिन जब फिर वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है तो हम वैसे ही प्रतिक्रिया करते हैं । बार-बार पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं होता ।

हमारी कठिनाई यह है कि जब विकार जागता है तब हम होश खो बैठते हैं । विकार का प्रजनन मानस की तलस्पर्शी गहराईयों में होता है और जब तक वह ऊपरी सतह तक पहुंचता है तो इतना बलवान हो जाता है कि हमपर अभिभूत हो जाता है । हम उसको देख नहीं पाते ।

तो कोई प्राईवेट सेक्रेटरी साथ रख लिया जो हमें याद दिलाये, देख मालिक, तुझ में क्रोध आ गया है, तू क्रोध को देख । क्यों कि क्रोध दिन के चौबीस घंटों में कभी भी आ सकता है इसलिए तीन प्राईवेट सेक्रेटरीज् को नौकरी में रख लूं । समझ लो, रख लिए । क्रोध आया और सेक्रेटरी कहता है, देख मालिक, क्रोध आया । तो पहला काम यह करूंगा कि उसे डांट दूंगा । मूर्ख कहीं का, मुझको सिखाता है? मैं क्रोध से इतना अभिभूत हो जाता हूं कि यह सलाह कुछ काम नहीं आती ।

मान लो मुझे होश आया और मैं ने उसे नहीं डांटा । मैं कहता हूं—बड़ा अच्छा कहा तूने. अब मैं क्रोध का ही दर्शन करूंगा, उसके प्रति साक्षीभाव रखूंगा । क्या यह संभव है ? जब आंख बंद कर क्रोध देखने का प्रयास करूंगा तब जिस बात को लेकर क्रोध जागा, बार-बार वही बात, वही व्यक्ती, वह ही घटना मन में आयेगी । मैं क्रोध को नहीं, क्रोध के आलंबन को देख रहा हूं । इससे क्रोध और भी ज़ादा बढेगा । यह कोई उपाय नहीं हुआ । आलंबन को काटकर केवल विकार को देखना बिल्कुल आसान नहीं होता ।

लेकिन कोई व्यक्ति परम मुक्त अवस्था तक पहुंच जाता है, तो सही उपाय बताता है । ऐसा व्यक्ति खोज निकालता है कि जब भी मन में कोई विकार जागे तो शरीर पर दो घटनाएं उसी वक्त शुरू हो जाती हैं । एक, सांस अपनी नैसर्गिक गति खो देता है । जैसे मन में विकार जागे, सांस तेज एवं अनियमित हो जाता है । यह देखना बड़ा आसान है । दोन, सूक्ष्म स्तर पर शरीर में एक जीवरासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप संवेदनाओं का निर्माण होता है । हर विकार शरीर पर कोई न कोई संवेदना निर्माण करता है ।

यह प्रायोगिक उपाय हुआ । एक सामान्य व्यक्ति अमूर्त विकारों को नहीं देख सकता—अमूर्त भय, अमूर्त क्रोध, अमूर्त वासना आदि । लेकिन उचित प्रशिक्षण एवं प्रयास करेगा तो आसानी से सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को देख सकता है । दोनों का ही मन के विकारों से सीधा संबंध है ।

सांस एवं संवेदनाएं दो तरह से मदद करेगी । एक, वे प्राईवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी । जैसे ही मन में कोई विकार जागा, सांस अपनी स्वाभाविकता खो देगा, वह हमे बतायेगा—देख, कुछ गडबड है! और हम सांस को डांट भी नहीं सकते । हमें उसकी चेतावनी को मानना होगा । ऐसे ही संवेदनाएं हमें बतायेगी कि कुछ गलत हो रहा है । दोन, चेतावनी मिलने के बाद हम सांस एवं संवेदनाओं को देख सकते है । ऐसा करने पर शीघ्र ही हम देखेंगे कि विकार दूर होने लगा ।

यह शरीर और मन का परस्पर संबंध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । एक तरफ मन में जागने वाले विचार एवं विकार हैं और दूसरी तरफ सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाएं हैं । मन में कोई भी विचार या विकार जागता है तो तत्क्षण सांस एवं संवेदनाओं को प्रभावित करता ही है । इस प्रकार, सांस एवं संवेदनाओं को देख कर हम विकारों को देख रहे हैं । पलायन नहीं कर रहे, विकारों के आमुख होकर सच्चाई का सामना कर रहे हैं । शीघ्र ही हम देखेंगे कि ऐसा करने पर विकारों की ताकत कम होने लगी, पहले जैसे वे हमपर अभिभूत नहीं होते । हम अभ्यास करते रहें तो उनका सर्वथा निर्मूलन हो जाएगा । विकारों से मुक्त होते होते हम सुख एवं शांति का जीवन जीने लग जाएंगे ।

इस प्रकार आत्मनिरिक्षण की यह विद्या हमें भीतर और बाहर दोनो सच्चाईयों से अवगत कराती है । पहले हम केवल बहिर्मुखी रहते थे और भीतर की सच्चाई को नहीं जान पाते थे । अपने दुख का कारण हमेशा बाहर ढूंढते थे । बाहर की परिस्थितियों को कारण मानकर उन्हें बदलने का प्रयत्न करते थे । भीतर की सच्चाई के बारे में अज्ञान के कारण हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमारे दुख का कारण भीतर है, वह है सुखद एवं दुखद संवेदनाओं के प्रति अंध प्रतिक्रिया ।

अब, अभ्यास के कारण, हम सिक्के का दूसरा पहलू देख सकते हैं । हम सांस को भी जान सकते है और भीतर क्या हो रहा उसको भी । सांस हो या संवेदना, हम उसे मानसिक संतुलन खोये बिना देख सकते हैं । प्रतिक्रिया बंद होती है तो दुख का संवर्धन नहीं होता । उसके बजाय, विकार उभर कर आते हैं और उनकी निर्जरा होती है, क्षय होता है ।

जैसे जैसे हम इस विद्या में पकते चले जांय, विकार शीघ्रता के साथ क्षय होने लगते हैं । धीरे धीरे मन विकारों से मुक्त होता है, शुद्ध होता है । शुद्ध चित्त हमेशा प्यार से भरा रहता है—सबके प्रति मंगल मैत्री, औरों के अभाव एवं दुखों के प्रति करुणा, औरों के यश एवं सुख के प्रति मुदिता एवं हर स्थिति में समता ।

जब कोई उस अवस्था पर पहुंचता है तो पूरा जीवन बदल जाता है । शरीर एवं वाणी के स्तर पर कोई ऐसा काम कर नहीं पायेगा जिससे की औरों की सुख-शांति भंग हो । उसके बजाय, संतुलित मन शांत हो जाता है और अपने आसपास सुख-शांति का वातावरण निर्माण करता है । अन्य लोग इससे प्रभावित होते हैं, उनकी मदद होने लगती है ।

जब हम भीतर अनुभव हो रही हर स्थिति में मन संतुलित रखते हैं, तब किसी भी बाह्य परिस्थिति का सामना करते हुए तटस्थ भाव बना रहता है । यह तटस्थ भाव पलायनवाद नहीं है, ना यह दुनिया की समस्याओं के प्रति उदासीनता या बेपरवाही है । विपश्यना (Vipassana) का नियमित अभ्यास करने वाले औरों के दुखों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, एवं उनके दुखों को हटाने के लिए बिना व्याकुल हुए मैत्री, करुणा एवं समता भरे चित्त के साथ हर प्रकार प्रयत्नशील होते हैं । उनमें पवित्र तटस्थता आ जाती हैं—मन का संतुलन खोये बिना कैसे पूर्ण रूप से औरों की मदद के लिए वचनबद्ध होना । इस प्रकार औरों के सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील होकर वे स्वयं सुखी एवं शांत रहते हैं ।

भगवान बुद्ध ने यही सिखाया—जीवन जीने की कला । उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की । उन्होंने अपने शिष्यों को मिथ्या कर्म-कांड नहीं सिखाये । बल्कि, उन्होंने भीतर की नैसर्गिक सच्चाई को देखना सिखाया । हम अज्ञानवश प्रतिक्रिया करते रहते हैं, अपनी हानि करते हैं औरों की भी हानि करते हैं । जब सच्चाई को जैसी-है-वैसी देखने की प्रज्ञा जागृत होती है तो यह अंध प्रतिक्रिया का स्वभाव दूर होता है । तब हम सही क्रिया करते हैं—ऐसा काम जिसका उगम सच्चाई को देखने और समझने वाले संतुलित चित्त में होता है । ऐसा काम सकारात्मक एवं सृजनात्मक होता है, आत्महितकारी एवं परहितकारी ।

आवश्यक है, खुद को जानना, जो कि हर संत पुरुष की शिक्षा है । केवल कल्पना, विचार या अनुमान के बौद्धिक स्तर पर नहीं, भावुक होकर या भक्तिभाव के कारण नहीं, जो सुना या पढा उसके प्रति अंधमान्यता के कारण नहीं । ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं है । हमें सच्चाई को अनुभव के स्तर पर जानना चाहिए । शरीर एवं मन के परस्पर संबंध का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए । इसी से हम दुख से मुक्ति पा सकते हैं ।

अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है । भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना / passana) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको । लेकिन विपस्सना (विपश्यना) का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, ना कि केवल जैसा ऊपर ऊपर से प्रतित होता है । भासमान सत्य के परे जाकर समग्र शरीर एवं मन के बारे में परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है । जब हम उस सच्चाई का अनुभव करते हैं तब हमारा अंध प्रतिक्रिया करने का स्वभाव बदल जाता है, विकारों का प्रजनन बंद होता है, और अपने आप पुराने विकारों का निर्मूलन होता है । हम दुखों से छुटकारा पाते हैं एवं सही सुख का अनुभव करने लगते हैं ।

विपश्यना साधना के शिविर में दिए जाने वाले प्रशिक्षण के तीन सोपान हैं । एक, ऐसे शारीरिक एवं वाचिक कर्मों से विरत रहो, जिनसे औरों की सुख-शांति भंग होती हो । विकारों से मुक्ति पाने का अभ्यास हम नहीं कर सकते अगर दूसरी ओर हमारे शारीरिक एवं वाचिक कर्म ऐसे हैं जिससे की विकारों का संवर्धन हो रहा हो । इसलिए, शील की आचार संहिता इस अभ्यास का पहला महत्त्वपूर्ण सोपान है । जीव-हत्या, चोरी, कामसंबंधी मिथ्याचार, असत्य भाषण एवं नशे के सेवन से विरत रहना—इन शीलों का पालन निष्ठापूर्वक करने का निर्धार करते हैं । शील पालन के कारण मन कुछ हद तक शांत हो जाता है और आगे का काम करना संभव होता है ।

अगला सोपान है, इस जंगली मन को एक (सांस के) आलंबन पर लगाकर वश में करना । जितना हो सके उतना समय लगातार मन को सांस पर टिकाने अभ्यास करना होता है । यह सांस की कसरत नहीं है, सांस का नियमन नहीं करते । बल्कि, नैसर्गिक सांस को देखना होता है, जैसा है वैसा, जैसे भी भीतर आ रहा हो, जैसे भी बाहर जा रहा हो । इस तरह मन और भी शांत हो जाता है और तीव्र विकारों से अभिभूत नहीं होता । साथ ही साथ, मन एकाग्र हो जाता है, तीक्ष्ण हो जाता है, प्रज्ञा के काम के लायक हो जाता है ।

शील एवं मन को वश में करने के यह दो सोपान अपने आपमें आवश्यक भी हैं और लाभदायी भी । लेकिन अगर हम तिसरा कदम नहीं उठायेंगे तो विकारों का दमन मात्र हो कर रह जाएगा । यह तिसरा कदम, तिसरा सोपान है अपने बारें में सच्चाई को जानकर विकारों का निर्मूलन द्वारा मन की शुद्धता । यह विपश्यना है—संवेदना के रूप में प्रकट होने वाले सतत परिवर्तनशील मन एवं शरीर के परस्पर संबंध को सुव्यवस्थित विधि से एवं समता के साथ देखते हुए अपने बारे में सच्चाई का अनुभव करना । यह भगवान बुद्ध की शिक्षा का चरमबिंदु है—आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि ।

सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं । सभी दुखियारे हैं । इस सार्वजनीन रोग का इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए, सांप्रदायिक नहीं । जब कोई क्रोध से पीड़ित होता है तो वह बौद्ध क्रोध, हिंदू क्रोध या ईसाई क्रोध नहीं होता । क्रोध क्रोध है । क्रोध के कारण जो व्याकुलता आती है, उसे ईसाई, यहुदी या मुस्लिम व्याकुलता नहीं कहा जा सकता । रोग सार्वजनीन है । इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए ।

विपश्यना ऐसा ही सार्वजनीन उपाय है । औरों की सुख-शांति भंग न करने वाले शील के पालन का कोई विरोध नहीं करेगा । मन को वश करने के अभ्यास का कोई विरोध नहीं करेगा । अपने बारें में सच्चाई जानने वाली प्रज्ञा का, जिससे कि मन के विकार दूर होते है, कोई विरोध नहीं करेगा । विपश्यना सार्वजनीन विद्या है ।

भीतर की सच्चाई को देखकर सत्य को जैसा है वैसा देखना—यही अपने आपको प्रत्यक्ष अनुभव से जानना है । धीरजपूर्वक प्रयत्न करते हुए हम विकारों से मुक्ति पाते हैं । स्थूल भासमान सत्य से शुरू करके साधक शरीर एवं मन के परमसत्य तक पहुंचता है । फिर उसके भी परे, शरीर एवं मन के परे, समय एवं स्थान के परे, संस्कृत सापेक्ष जगत के परे—विकारों से पूर्ण मुक्ति का सत्य, सभी दुखों से पूर्ण मुक्ति का सत्य । उस परमसत्य को चाहे जो नाम दो, सभी के लिए वह अंतिम लक्ष्य है ।

सभी उस परमसत्य का साक्षात्कार करें । सभी प्राणी दुखों से मुक्त हों । सभी प्राणी शांत हो, सुखी हो ।

सबका मंगल हो